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छोटे-छोटे सवाल (उपन्यास): दुष्यन्त कुमार

वकील या कोतवाल उन्हें क्या देते? कोतवाल तो उनके पास तक नहीं आया !चौधरी नत्थूसिंह को खुशी थी इस बात की कि अब कोतवाल गनेशीलाला से कांटे ज़रूर निकालेगा। असरार नहीं लिया गया तो श्रोत्रिय भी नहीं लिया जा सका। दोनों में से जीत किसी की नहीं हुई।गनेशीलाल भी बिलकुल वही सोच रहे थे जो चौधरी नत्थूसिंह ने सोचा था। फर्क इतना था कि नत्थूसिंह की कल्पना में कोतवाल गनेशीलाल को सता रहा था और गनेशीलाल की कल्पना में नत्थूसिंह को।फिर अचानक अपने-अपने काम का ध्यान आया तो सबसे पहले गनेशीलाल वहाँ से उठे। 

उनके साथ ही चौधरी नत्थूसिंह भी उठ खड़े हुए। अब सत्यव्रत का वहाँ बैठना फ़िजूल था। हाथ जोड़ते हुए वह उठा तो लालाजी भी छड़ी सँभाले हुए साथ ही उठ लिए और चलते हुए सत्यव्रत के कन्धे पर हाथ रखकर सनेह से कहा,"तुम कल उत्तमचन्द से मिलकर अपनी नियुक्ति का पत्र अवश्य ले लेना, भय्या !"सत्यव्रत का मस्तक स्वयमेव श्रद्धा से नत हो गया। उसे लालाजी में वह गंगा-तटवासी स्वामीजी दिखाई दिए जो 'श' को 'स' बोला करते थे मगर जिनकी दृष्टि भविष्य में झाँकती थी। उसने अपने इंटरव्यू के विषय में सोचा तो लगा कि यद्यपि गनेशीलाल और चौधरी साहब के प्रश्न भी चारित्रिक दृष्टि से बड़े महत्त्व के थे, पर लालाजी के प्रश्नों जैसी गहराई उनमें न थी।
गूँगे की दुकान (अध्याय-3)राजपुर एक मामूली-सा गन्दा कस्बा सही किन्तु राजपुर की शाम अनन्त सौन्दर्य लेकर आती है। 

आकाश पर कुछ आकृतियाँ उभरती हैं और अबाबीलों की तरह पंख खोलकर धीरे-धीरे धरती पर उतरने लगती हैं। शहर के चारों ओर खड़े खजूर के मनहूस-से पेड़ सतर्क प्रहरियों की तरह तन जाते हैं। लखीरी ईटों के उदास खंडहरों पर लज्जा की लाली दौड़ जाती है। सोन नदी का काला जल सुनहरा हो उठता है। और छोटे तालाब के चारों और गोलाकार खड़े जामुन, नीम और खजूर के वृक्ष सामूहिक नृत्य की मुद्रा धारण कर लेते हैं।शाम के इस सौन्दर्य की सबसे अधिक प्रतिक्रिया हिन्दू इंटर कॉलेज की इमारत पर होती है जो हर दृश्य के साथ रंग बदलती हुई एक धैर्यवान दर्शक की भाँति खड़ी रहती है। 


यों देखने में वह भी एक मामूली-ती पीली दुमंजिली इमारत है जो हर ओर से चौकोर नजर आती है। उसमें अन्दर जाने के लिए एक ही बड़ा-सा दरवाजा है जिस पर लोहे की मोटी नुकीली कीलें उभरी हैं और नीचे एक बड़ी-सी साँकल और कुन्दा लगा है। भीतर छोटा-सा आँगन है। दरवाजे से आँगन में घुसते ही बाईं ओर दफ्तर है जहाँ पवन बाबू बैठते हैं, फिर टीचर्स-रुम और लायब्रेरी है। और दाईं ओर ऊपर जाने का जीना, साइंसलैबोरेटरी तथा प्रिंसिपल का कमरा है। नीचे के शेष पाँच-सात कमरों में हाई स्कूल की कक्षाएं लगती हैं। और ऊपर की मंजिल में इंटरमीडिएट और छोटी कक्षाओं के छात्र बैठते हैं। 

यानी कुल मिलाकर इमारत का कोई खास प्रभाव दर्शक के मन पर नहीं पड़ता। किन्तु शाम होते ही इसमें भी तरंगें पैदा होने लगती हैं।यही शाम शहर से कुछ दिलचस्पियों को बाँधे है वरना कॉलेज में नियुक्त होनेवाले नए अध्यापकों के सामने हर साल एक समस्या आती है कि यहाँ वक्त कैसे गुजारा जाए? राजपुर पच्चीस-तीस हजार की आबादी का एक छोटा-सा कस्बा है; जहाँ न कोई थियेटर है, न सिनेमा, न कोई सांस्कृतिक गतिविधि है, न साहित्यिक उत्साह । 

पूरे शहर में एक ही बड़ी सड़क है (जो बिजनौर से आती है) जिसमें इधर-उधर से रेंगती हुई सँकरी-सी कई गलियाँ आ मिलती हैं। गलियों में दिन-भर बच्चे, मकोड़े और नाबदान के कीड़े बिलबिलाते रहते हैं और सड़क पर गाँव से गुड़ या राव की गाड़ियाँ लेकर आए हुए किसानों पर, दलालों और आढ़तियों की मक्खियों-सी भीड़ भनभनाती रहती है।

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